Natasha

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राजा की रानी

फिर भी मैं इस बात को नहीं भूला कि बहुत रात बीत गयी है, मुझे तम्बू में लौटना है और उसके लिए कम-से-कम एक बार चेष्टा तो करनी चाहिए; किन्तु, मन में लगा कि यह सब व्यर्थ है। यहाँ पर मैं अपनी इच्छा से तो आया नहीं हूँ, आने की कल्पना भी नहीं की; इसलिए, जो मुझे इस दुर्गम रास्ते पर रास्ता दिखलाकर लाया है, उसका कुछ विशेष प्रयोजन है। वह मुझे यों ही न लौट जाने देगा। पहले मैंने सुना था कि अपनी इच्छा से इनके हाथों से छुटकारा नहीं मिलता। चाहे जिस रास्ते, चाहे जिस तरह, जोर करके क्यों न निकलो, सब रास्ते गोरख धन्धे की तरह घुमा-फिराकर पुरानी जगह पर ही लाकर हाजिर कर देते हैं!


इसलिए, चंचल होकर छटपटाना सम्पूर्ण तौर से अनावश्यक समझकर, मैं किसी तरह की हिलने-डुलने की भी चेष्टा किये बिना, जब स्थिर होकर बैठ गया तब जो वस्तु अकस्मात् देख पड़ी, वह मुझे किसी दिन भी विस्मृत नहीं हुई।

रात्रि का भी स्वतन्त्र रूप होता है और उसे, पृथ्वीन के झाड़-पाले, गिरिपर्वत आदि जितनी भी दृश्यमान वस्तुएँ हैं उनसे, अलग करके देखा जा सकता है, यह मानो आज पहले मेरी दृष्टि में आया। मैंने ऑंख उठाकर देखा कि अन्तहीन काले आकाश के नीचे, सारी पृथ्वील पर आसन जमाए, गम्भीर रात्रि ऑंखें मूँदे ध्या न लगाए बैठी है और सम्पूर्ण चराचर विश्व मुख बन्द किये, साँस रोके, अत्यन्त सावधानी से स्तब्ध होकर उस अटल शान्ति की रक्षा कर रहा है। एकाएक ऑंखों के ऊपर से मानो सौन्दर्य की एक लहर दौड़ गयी। मन में आया कि किस मिथ्यावादी ने यह बात फैलाई है कि केवल प्रकाश का ही रूप होता है, अन्धकार का नहीं? भला, इतना बड़ा झूठ मनुष्य ने किस तरह चुपचाप मान लि‍या होगा? यह तो आकाश और मर्त्य, सबको परिव्याप्त करके, दृष्टि से भीतर-बाहर अन्धकार का पूरा बढ़ा आ रहा है। वाह-वाह! ऐसा सुन्दर रूप का झरना और कब देखा है! इस ब्रह्माण्ड में जो जितना गम्भीर, जितना अचिन्त्य, जितना सीमाहीन है- वह उतना ही अन्धकारमय है। अगाध समुद्र स्याही जैसा काला है; अगम्य गहन अरण्यानी भीषण अन्धकारमय है। सर्व लोगों का आश्रय, प्रकाश का भी प्रकाश, गति की भी गति, जीवन का भी जीवन, सम्पूर्ण सौन्दर्य का प्राण-पुरुष भी, मनुष्य की दृष्टि में निबिड़ अन्धकारमय है। मृत्यु इसीलिए मनुष्य की दृष्टि में काली है, और इसीलिए उसका परलोक-पन्थ इतने दुस्तर अंधेरे में मग्न है! इसीलिए राधा के दोनों नेत्रों में समाकर जिस रूप ने प्रेम के पूर में जगत को बहा दिया, वह भी घनश्याम है। मैंने कभी ये सब बातें सोची नहीं, किसी दिन भी इस रास्ते चला नहीं; फिर भी न जाने किस तरह इस भय से भरे हुए महाश्मशान के समीप बैठकर, अपने इस निरुपाय नि:संग अकेलेपन को लाँघकर, आज सारे हृदय में एक अकारण रूप का आनन्द खेलने फिरने लगा और बिल्कुगल एकाएक यह बात मन में आई कि काले में इतना रूप है, सो पहले तो किसी दिन समझा नहीं! तब तो शायद मृत्यु भी काली होने के कारण कुत्सित नहीं है; एक दिन जब वह मुझे दर्शन देने आवेगी तब शायद उसके इस प्रकार के, कभी समाप्त न होने वाले, सुन्दर रूप से मेरी दोनों ऑंखें जुड़ा जाँयगी। और वह अगर दर्शन देने का दिन आज ही आ गया हो, तो है सुन्दर मेरे काले! ओ मेरी समीपस्थ पदध्व्नि! हे मेरे सर्व-दु:ख भय-व्यथाहारी अनन्त सुन्दर! तुम अपने अनादि अन्धकार से सर्वांग भरकर मेरी इन दोनों ऑंखों की दृष्टि में प्रत्यक्ष होओ, मैं तुम्हारे इस अन्धा-अन्धकार से घिरे हुए निर्जग मृत्यु-मन्दिर के द्वार पर, तुम्हें निर्भयता से वरण करके बड़े आनन्द से तुम्हारा अनुकरण करता हूँ। सहसा मेरे मन में आया- तब उसके इस निर्वाक् आह्नान की उपेक्षा करके अत्यन्त ही अन्त:वासी के समान, मैं यहाँ बाहर किसलिए बैठा हूँ? एक दफा भीतर बीच में क्यों न जा बैठूँ!

नीचे उतरकर मैं श्मशान के ठीक बीचों-बीच बिल्कु्ल जमकर बैठ गया। कितनी देर तक इस तरह स्थिर बैठा रहा, इसका मुझे उस समय होश नहीं था। होश आने पर देखा कि उतना अन्धकार अब नहीं रहा है- आकाश का एक प्रान्त मानो स्वच्छ हो गया है; और उसके पास ही शुक्र तारा चमक रहा है। कुछ दबी हुई-सी बातचीत का कोलाहल मेरे कानों में पहुँचा। अच्छी तरह निरीक्षण करके देखा, कि दूर पर सेमर के वृक्ष की आड़ में, बाँध के ऊपर से होकर कुछ लोग चले आ रहे हैं; और उनकी दो-चार लालटेनों का प्रकाश भी आसपास इधर-उधर हिल-डुल रहा है। फिर से, बाँध के ऊपर चढ़कर, उस प्रकाश में ही मैंने देखा कि दो बैलगाड़ियों के आगे-पीछे कुछ लोग इसी ओर बढ़े आ रहे हैं। समझ पड़ा कि कुछ लोग इस रास्ते होकर स्टेशन की ओर जा रहे हैं।

मुझे उस समय यह सुबुद्धि सूझ आई कि रास्ता छोड़कर मेरा दूर खिसक जाना आवश्यक है। क्योंकि, आगन्तुकों का दल चाहे कितना भी बुद्धिमान और साहसी क्यों न हो, एकाएक इस अंधेरी रात्रि में, इस तरह के स्थान में मुझे अकेला भूत की तरह खड़ा देखकर चाहे और कुछ न करे, परन्तु एक विकट चीख-पुकार अवश्य मचा देगा, इसमें कोई सन्देह नहीं।

मैं लौटकर अपनी पुरानी जगह पर जा खड़ा हुआ; और थोड़े समय बाद ही दो चटाई लगी हुई बैलगाड़ियाँ, पाँच-छह आदमियों के पहरे में, मेरे सामने आ पहुँचीं। एक बार खयाल आया कि आगे चलने वाले दो आदमी मेरी ओर देखकर, क्षण काल के लिए स्थिर हो, खड़े रहे और अत्यधिक धीमे स्वर में मानो कुछ कह-सुनकर आगे चले गये; और थोड़ी-सी ही देर में वह सारा दल, बाँध के किनारे की एक झाड़ी की ओट में, अदृश्य हो गया। यह अनुभव करके कि रात अब अधिक बाकी नहीं रही है, जब मैं लौटने की तैयारी कर रहा था, ठीक उसी समय उन वृक्षों की ओट में से आती हुई खूब ऊँचे कण्ठ की पुकार कानों में आई, “श्रीकान्त बाबू-”

मैंने उत्तर दिया, “कौन है रे, रतन?”

“हाँ बाबू, मैं ही हूँ। जरा आगे बढ़ आइए।”

जल्दी से बाँध के ऊपर चढ़कर पुकारा, “रतन, तुम लोग क्या घर जा रहे हो?”

रतन ने उत्तर दिया, “हाँ, घर जा रहे हैं- माँ गाड़ी में हैं।”

मेरे निकट पहुँचते ही प्यारी ने पर्दे में से मुँह बाहर निकालकर कहा, “दरबान की बात सुनकर ही मैं समझ गयी थी कि तुम्हें छोड़ और कोई नहीं है, गाड़ी पर आओ, कुछ बात करनी है!”

मैंने निकट आकर पूछा, “क्या बात है?”

“कहती हूँ, ऊपर आ जाओ।”

“नहीं, ऐसा नहीं कर सकता, समय नहीं है। सुबह होने के पहले ही मुझे तम्बू में पहुँचना है!” प्यारी ने हाथ बढ़ाकर चट से मेरा दाहिना हाथ पकड़ लिया और तेज ज़िद के स्वर में कहा, “नौकर-चाकरों के सामने छीना-झपटी, मत करो- तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, चुपचाप ऊपर चढ़ आओ...”

उसकी अस्वाभाविक उत्तेजना से मानो कुछ हत-बुद्धि-सा होकर मैं गाड़ी पर चढ़ गया। प्यारी ने गाड़ी को हाँकने की आज्ञा देकर कहा, “आज फिर इस जगह क्यों आए?”

मैंने सच-सच बात कह दी, “नहीं मालूम, क्यों आया।”

प्यारी ने अब तक भी मेरा हाथ नहीं छोड़ा था। बोली, “तुम्हें नहीं मालूम? अच्छा, ठीक, परन्तु छिपकर क्यों आए थे?”

मैं बोला, “यह ठीक है कि यहाँ आने की बात किसी को मालूम नहीं है, किन्तु छिपकर नहीं आया हूँ।”

“यह झूठ बात है!”

“नहीं।”

“इसका मतलब?”

“मतलब यदि खोलकर बता दूँगा तो विश्वास करोगी? न तो मैं छिपकर ही आया हूँ, और न मेरी इच्छा ही आने की थी।”

प्यारी ने व्यंग्य के स्वर में कहा, “तो फिर तुम्हें तम्बू में से भूत उड़ा ले आया है- मालूम होता है, यही कहना चाहते हो क्यों?”

“नहीं, सो नहीं कहना चाहता। उड़ाकर कोई नहीं लाया, अपने ही पैरों चलकर आया हूँ, यह भी सच है किन्तु क्यों आया, कब आया, सो नहीं कह सकता।”

प्यारी चुप हो रही। मैं बोला, “राजलक्ष्मी, नहीं जानता कि तुम विश्वास कर सकोगी या नहीं; परन्तु, वास्तव में जो कुछ हुआ है, सो एक अचरज-भरा व्यापार है।” इतना कहकर मैंने सारी घटना अथ से इति पर्यन्त कह दी।

सुनते-सुनते मेरे हाथ में रक्खा हुआ उसका हाथ कई बार सिहर उठा; परन्तु उसने एक भी बात नहीं कही। पर्दा उठा हुआ था, पीछे की ओर नजर डालकर देखा, आकाश उज्ज्वल हो गया है। बोला, “अब मैं जाऊँ?”

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